RIGHT TO FOOD (भोजन का अधिकार)

The right to food can be seen as an implication of the fundamental “right to life”, enshrined in Article 21 of the Indian Constitution. Indeed, the Supreme Court has explicitly stated (several times) that the right to life should be interpreted as a right to “live with human dignity”, which includes the right to food and other basic necessities.

 

The right to food is one of the most basic human rights, closely linked to the right to life. No government practice or action can be allowed to deny this right to people. Human Rights are indivisible and inalienable. The denial of one right inevitably affects the enjoyment of other rights, but also the inherent relationship between the rule of law and the protection of all human rights, including the right to food. Effective rule of law does not include only legal provisions on paper, but their adequate implementation and room for redress. The right to food in particular, must be made justiciable in courts of law. All those suffering from the pangs of hunger are also being denied other basic human rights, be they civil and political rights, or economic, social and cultural rights. And in all the cases, these rights are not affected by natural causes or a lack of resources, but rather by systemic negligence and ineffective distribution.

The Ultimate objective of this project is to see that the Right to Food is legally recognized as a fundamental right in India thereby putting an end to death due to hunger, malnutrition and starvation.


सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी। 2005 में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए मनरेगा योजना आई और 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बना। भोजन का अधिकार कैसे मानवाधिकार है, आज अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस पर जानिए-


राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी व्याख्या में कहा कि भोजन का अधिकार भारतीयों का मौलिक अधिकार है। साथ ही 2003 में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा किभूख से मुक्त होने का अधिकार मौलिक अधिकार है।


भोजन का अधिकार प्रत्यक्षत: भारतीय संविधान में शामिल नहीं है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों में स्पष्ट किया गया है कि जीवन के अधिकार (धारा 21) के तहत भोजन का अधिकार सम्मान, नियोजन आदि के अधिकार में अंतर्निहित है। राज्यों को ऐसी नीति बनाने का संविधान द्वारा निर्देश है कि प्रत्येक नागरिक को समान रूप से जीविका के समुचित साधन प्राप्त करने का अधिकार हो तथा राज्य नागरिकों के पोषाहार तथा जीवन स्तर को उठाने जन स्वास्थ्य में सुधार का प्रयास करें। अनुच्छेद 39 () तथा 47 में कहा है कि यह राज्य का प्राथमिक दायित्व होगा।


मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948 के अनुच्छेद 3 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की स्वतंत्रता और शरीर की सुरक्षा का अधिकार है। 1986 के विकास के अधिकार संबंधी घोषणा में भी यह स्पष्ट किया कि विकास के लिए राज्य सुनिश्चित करेंगे कि लोगों को बुनियादी संसाधन जैसे भोजन, आवास, शिक्षा, रोजगार आदि के मामले में अवसर सुलभ हो। संविधान के भाग 3 एवं 4 की व्याख्या और वे अंतरराष्ट्रीय घोषणाएं, जिन्हें भारत ने अनुमोदित किया है, में भोजन के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में शामिल किया गया है। यहां पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) द्वारा 2001 में दायर की गई जनहित याचिका का जिक्र करना आवश्यक है। इसमें भारत सरकार, भारतीय खाद्य निगम और सभी राज्य सरकारों को पार्टी बनाया गया। इसमें कहा गया कि भोजन का अधिकार मौलिक अधिकार है (धारा 21 के अंतर्गत) मगर केंद्र और राज्य सरकार इसका उल्लंघन कर रहे हैं। इस याचिका में चार कार्रवाई का निवेदन किया गया- () सूखा प्रभावित गांवों में सभी को रोजगार कार्य उपलब्ध हो। () जन वितरण में खाद्यान्न की हकदारी को बढ़ाया जाए। () सभी परिवारों से अनुदानित खाद्यान्न दिया जाए तथा इस सभी कार्यक्रमों के लिए केंद्र सरकार मुफ्त में खाद्यान्न उपलब्ध कराए।


बाद में इस याचिका के विषय क्षेत्र को बड़ा किया गया तथा इसमें भोजन के अधिकार के अलावा खाद्य संबंधी योजनाओं का क्रियान्वयन, काम का अधिकार, भूख से मौत तथा पारदर्शिता जैसे मुद्‌दे शामिल किए गए। दोनों पक्षों की ओर से करीब 400 हलफनामे दायर किए गए और 44 अंतरिम आदेश पारित किए गए। ये आदेश केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पालन किए गए। प्रतिनियुक्त आयुक्तों को कोर्ट के आदेशों के अनुपालन की विस्तृत शक्तियां दी गईं तथा सभी अधिकारियों को निर्देश दिए गए कि वे प्रतिनियुक्त आयुक्तों को पूरा सहयोग दें।


अक्टूबर 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकारें कुपोषण या भूख से मौत रोकने के लिए जिम्मेदार हैं। भूख से मौत पर मुख्य सचिवों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के प्रथम अंतरिम आदेश में आठ योजनाओं पर विशेष ध्यान दिया गया- जन वितरण प्रणाली, अंत्योदय अन्न योजना, राष्ट्रीय प्राथमिक शिक्षा हेतु पोषाहार सहायता कार्यक्रम- दोपहर का भोजन योजना, समेकित बाल विकास योजना, अन्नपूर्णा योजना, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना। सर्वोच्च न्यायालय ने आठों लाभों को वैधानिक हकदारी में बदल दिया है। उदाहरणार्थ यदि किसी के पास अंत्योदय कार्ड है, पर उसे पूरा कोटा (35 किलो प्रतिमाह) सरकारी दर (3 रु. किलो चावल, 2 रु. किलो गेहूं) नहीं मिलता हो तो वह अपने अधिकार के लिए कोर्ट में दावा कर सकते हैं। दोपहर का भोजन पकाकर दिया जाए। ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों को सामाजिक अंकेक्षण तथा निरीक्षण का अधिकार दिया।

 

फैक्ट : देश में 60 करोड़ क्विंटल अनाज गोदामों में रहता है और गरीबों की दो जून की रोटी मात्र एक करोड़ क्विंटल में पूरी हो सकती है।